यायावर मन अकुलाया (द्वारिकाधीश की यात्रा)
भाग-22 हनुमान टीला और उदासीन अखाड़ा दर्शन
यायावर मन अकुलाया एक वृहद यात्रा संस्मरण है । यह यात्रा बिलासपुर छत्तीसगढ़ से प्रारंभ होकर । विभिन्न तीर्थ स्थलों से होते हुए द्वारिका पुरी में संपन्न होता है । आज के इस कड़ी में द्वारिका केे हनुमान टीला और उदासीन अखाड़े का चित्रण किया गया है ।

हनुमान टीला
हम लोग सब कुछ देखते सुनते उस चहार दीवारी से बाहर आ गये। यहाँ और भी बहुत कुछ देखने लायक है जिसे देखे बिना बेंट द्वारिका का सफर पूरा नहीं हो पायेगा। आगे हमारे ऑटो वाले जिन्हे हमने पूरी बेंट द्वारिका घुमाने के लिए बुक कर लिया था हमें लेकर उस सथन पर पहुँचे जिसका संबंध सीधे त्रेता युग से जुड़ता है, यह है हनुमान् टीला, एक टीले के ऊपर बना हनुमान् पुत्र मकरध्वज और स्वयं हनुमान् जी का प्रसिद्ध मंदिर ।
मकरध्वज का मंदिर देश में एकाध जगह ही और है बाकी यही है बेंट द्वारिका की त्रेता युग से ही स्थिति की पुष्टि करने वाला साक्ष्य जो द्वारिकाधीश मंदिर से लगभग 7 किलो मीटर दूर एक विस्तृत जगह पर है। मुख्यप्रवेश द्वार विशाल और कलात्मक है, अंदर निरंतर रामधुन गायी जाती है।
भक्तों के बैठने के लिए बड़े बड़े हॉल हैं जिनमें कालीन बिछा हुआ है। उस समय भी लोग ’’श्रीराम जयराम जय राम जय जय राम’’ का गायन कर रहे थे। गर्भगृह में श्री हनुमान् जी अपने पुत्र मकरध्वज के साथ विराज रहे हैं, यहाँ उनकी सूरत कपि की न हो कर मानव की है। दोनो प्रसन्न मुद्रा में हैं। मकरध्वज की मूर्ति हनुमान् जी से कुछ ऊपर लगी हुई है। मैंने पिता को हर्षित होकर प्रणाम किया । उनका सिंदूरी तिलक माथे पर लगा लिया।
बालब्रह्मचारी हनुमान जी का पुत्र कैसे ?
सभी जानते हैं कि हनुमान जी बालब्रह्मचारी हैं फिर उनका पुत्र कैसे हुआ ? इस प्रश्न के उत्तर में एक कथा है जिसका संबंध त्रेता युग के कुख्यात खलनायक रावण से है-एक बार उसके घर ऐसा पुत्र हुआ जिसका मुँह साँप जैसा था, उसे देखकर ज्योतिषियों रावण को सलाह दी कि इसे लंका से दूर ले जाकर जमीन में गाड़ दों इसके रहने से लंका का विनाश निश्चित है। उसने वैसा ही किया। रावण का पुत्र अपने साँप जैसे मुँह से जमीन खोदते- खोदते पाताल पहुँच गया और समय पाकर वहाँ का राजा बन गया।
कामदग्ध सूर्पणखा के अनैतिक प्रस्ताव को ठुकराने के अपराध में जब उसने राजा दशरथ की कुलवधू और श्री राम की भार्या सीताजी का वध करना चाहा तब लक्ष्मण जी ने उसके नाक-कान काट दिये, उसने रावण को खूब भड़काया और दशानन ने सीता हरण जैसा गंभीर अपराध कर दिया, जिसके फलस्वरूप राम रावण का भयानक युद्ध छिड़ गया। राम ने सुग्रींव से मैत्री करके वानर भालुओ की सेना संगठित की और सम्मुख युद्ध में अक्षयकुमार, मेघनाद, कुंभकरण आदि योद्धा काल कवलित हो गये।
जब लंका की सेना भी बहुत कम रह गई, तब रावण को अपने उस पुत्र की याद आई जिसे उसने जन्म लेते ही भूमि में गाड़ दिया था और जिसका नाम अहिरावण था। आर्कषण मंत्र द्वारा उसने अपने पुत्र को लंका बुलाकर अपनी विपदा कही, उसने अपने चाचा विभीषण जो रावण द्वारा अपमानित होकर राम से जा मिला था उसका रूप बना कर रात में सोते समय राम लक्ष्मण का अपहरण करके पाताल लोक ले गया था जिनकी खोज करते श्री राम के परम भक्त हनुमान्जी पाताल लोक तक गये, पाताल लोक के द्वारपाल एक बंदर ने उन्हे राकने का प्रयास किया, पूछने पर उसने अपना नाम मकरध्वज बताया और अपने पिता का नाम हनुमान् ।
हनुमान् जी ने अपना परिचय देकर आश्चर्य से कहा कि वे तो अखंड ब्रह्मचारी हैं फिर पुत्र कहाँ और कैसे हुआ? मकरध्वज ने बताया कि लंका दहन के बाद श्रमित हनूमान् जी ने समुद्र में कूदकर अपनी पूँछ में लगी आग बुझाई, उसी समय उनके शरीर से गिरा एक बूंद पसीना एक मगरी के खुले हुए मुख में चला गया और इस प्रकार वे पुत्रवान् हो गये। हनुमान जी ने अपने पुत्र से राम जी के काज के लिये मदद मांगी तो मकरध्वज तैयार नहीं हुआ उसने बड़े गर्व से कहा मैं स्वामीभक्त हनुमान् का पुत्र हूँ, अपने स्वामी से दगा नहीं कर सकता । आप मुझे हराकर जा सकते हैं, तब हनुमान् ली ने युद्ध में उसे हराकर उसकी पूँछ से उसे बाँधकर प्रवेशद्वार के पास छोड़ दिया और आगे बढ़े अहिरावण और उसके भाई महिरावण को मार कर हनुमान् जी ने वहाँ की पूरी निशाचर सेना का नाश कर दिया, तब श्री राम की आज्ञा से मकरघ्वज को पाताल लोक का अधिपति नियुक्त करके श्री राम लक्ष्मण को लेकर लंका के संग्राम स्थल को गये। कहते हैं उस समय यहीं पर पाताल लोक का प्रवेश द्वार था।
लोगों की मनोकामना पूरी करने में हनुमान् जी जैसा कोई दानी नहीं है। माना जाता है कि इस मंदिर में मांगी गई मुराद अवश्य पूरी होती है। वहाँ के पुजारी से बातचित में पता चला कि मनोकामना पूर्ति के लिए प्रार्थीजन से सुपाड़ी ले लेते हैं उस सुपाड़ी को हनुमान जी की छाती पर चिपका कर रखा जाता है मनोकामना पूरी होने पर वे आकर पूजा अर्चना करते हैं। यहाँ अखंड धुनी जलती रहती है।
उदासीन अखाड़ा
यहाँ से निकल कर हम लोग उदसीन अखाड़े गये यह भी एक बड़े क्षेत्र में है, यहाँ बहुत से साधु आते जाते नजर आये। यहाँ निःशुल्क अन्न क्षेत्र चलता है । मेरे विचार से इन्हें तो यहाँ होना ही चाहिए क्योंकि सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मा के पहले मानस पुत्र सनत सनंदन सनातन और सनतकुमार ने संसार के भोगों से मुँह मोड़कर इस क्षेत्र में आकर भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिए तप किया, पहले उदासी तो वे ही थे। जिनका उदसीन सम्प्रदाय अब तक देश-विदेश में आश्रमों की स्थापना करके जनता की सेवा सहायता शिक्षा-दीक्षा का काम करता है।
यहाँ प्राचीन काल के कई सरोवर देखने को मिले जिन्हें हमने ऑटो से यात्रा करते हुए देखा। पहले इनका स्थान देवताओं की तरह पूजनीय था, अब जल की वैकल्पित व्यवस्था के कारण ये उपेक्षित हो रहे हैं । अब तक लगभग बारह बज चुके थे हम लोगों ने जेटी पर आकर ओख की ओर लौटने वाली नाव पर चढ़ कर वापसी प्रारंभ की ।
ओख की ओर वापसी
इस समय समुद्र में सबेरे से अधिक ऊँची लहरें उठ रहीं थी। मैने अपने आस-पास दृष्टि डाली अनगिनत नावें समुद्र में लंगर डाले खड़ी थीं, उनके मस्तूलपर भारत का राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा फहरा रहा था, मुझे गर्व की अनुभूति हुई, लगा जैसे यह कछ की खाड़ी मेरी है, ये सारी नावें मेरी हैं, इन पर फहरने वाला राष्ट्रघ्वज मेरा है । मैंने दाना खरीद कर पक्षियें को चुगाया। माया मेरे साथ ही बैठी थी उससे बाँट कर मैंने मूंगफल्ली खाई, फिर कैमरा निकालकर अपने साथियों की फोटो खींचने लगी।
हमारी यात्रा पूर्णता की ओर थी। इससे मन में हल्कापन अनुभव हो रहा था कुछ कहना चाहती थी माया से कि पटेल जी मेरे पास अपना मोबाइल लेकर आ गये -’’ ऐदे मेडम ! तूँहर खजाना बेटा के फोन आत हे!’’ उन्होंने मोबाइल मेरी ओर बढ़ा दिया। मैंने पहले लिखा है कि मेरा मोबाइल बंद हो गया था वह पूरी यात्रा बोझ ही बना रहा। मैंने अपने बेटे को अपना समाचार दिया और घर परिवार का समाचार प्राप्त कर दुगनी प्रसन्नता प्राप्त की। पटेल जी को उनका मोबाइल लौटा कर उन्हें धन्यवाद दिया। जल्दी ही हम लोग ओख पहुँच गये। हमारे ऑटो वाले हमारा इंतजार ही कर रहे थे अतः हम लोग होटल की ओर चल पड़े।
बेंट द्वारिका में जनसंख्या असंतुलन
थकावट और भूख से अधिक बोलने की हिम्मत नहीं रह गई थी मुझमें, इसलिए चुपचाप बैठ गई, जब हम चुप रहते हैं तो मन और ही अधिक मुखर हो जाता है, मैंने जाना था कि बेंट द्वारिका की आबादी लगभग दस हजार है जिसमे आठ हजार मुसलमान और मात्र दो हजार हिन्दू हैं । मुसलमानों के पास मत्स्याखेट , मत्स्यव्यापार आटो आदि चलाने का काम है किंतु हिन्दुओं के पास मंदिरों से होने वाली आय के सिवा जीवन यापन का कोई उपाय नहीं हैं। मन को बहुत कचोट रहा था यह आँकड़ा। एक हिन्दू तीर्थ जहाँ वे अल्पसंख्यक हैं, हो सकता है मुसलमानों के बार- बार होने वाले हमलाें में ज्यादातर हिन्दू मार डाले गये हों, उनकी स्त्रियों का बलात् धर्मान्तरण करा दिया गया हो, यहाँ के मुसलमान उन्ही बेवस माताओं की संतति हों। या हो सकता है कि बार- बार प्राकृतिक आपदा के कारण उजड़ने के कारण द्वीप की जनसंख्या विरल हो गई हो जहाँ मुसलमान् जाकर बस गये हो, हिन्दुओं को अपनी प्रकृति के अनुसार रोजगार न मिला हो। चाहे जो हो यह विसंगति ध्यान देने योग्य है।
यात्रा की वापसी
हम लोग होटल आये, सबसे पहले हॉल में बैठ कर आवश्यकतानुसार सभी ने भोजन किया । फिर अपने -अपने कमरे में गये । फुर्ती से सुबह सुखाये कपड़े उठाये और बचा हुआ समान पैक किया। अब द्वारिका से विदा लेने की घड़ी निकट थी। दो बज चुके थे, त्रिपाठी जी ने सबको सामान उतार कर रखने की हिदायत दी और स्वयं अपना और मेरा सामान उतारा, इसी बीच शर्मा जी और तिवारी जी पास ही स्थित बस स्टेंड की ओर चले गये, हम लोग बेसब्री से बस का इंतजार कर रहे थे। बस स्टेंड में कोई ऐसा स्थान नहीं था कि हम लोग सामान सहित वहाँ जा कर रुकें।
’’ अरे! आप लोग कहाँ चले गये थे ? गाड़ी आ गई क्या?’’ त्रिपाठी जी ने शर्मा जी को आते देखकर पूछा ।
’’ नहीं अभी नहीं आई है, हम लोग जा रहे हैं वहीं खड़े रहेंगे। ’’ बड़ी जल्दीबाजी में तिवारी जी ने कहा और उतनी ही तेजी से अपना सामान लेकर पैदल निकल पड़े उनकी पत्नी मीना मैडम भी उनके पीछे-पीछे चली गईं ।
’’ आप लोग यहीं ठहरिये गाड़ी आयेगी तो हम लोग आप को बतायेंगे ।’’ कहते हुए शर्मा जी भी अपनी पत्नी के साथ निकल लिए।
त्रिपाठी जी कुछ व्यग्र से अभी कुछ निर्णय नहीं कर पाये थे कि होटल वाले का नौकर चिल्ला पड़ा– अरे! आप लोग जल्दी जाइए! वो देखिये गाड़ी खड़ी है! जल्दी करिये! नहींं तो निकल जायेगी ! ’’ हम लोग से ज्यादा वही हड़बड़ाया सा लग रहा था।
’’ अरे! गाड़ी आ गई ! अब कैसे करें ?’’ हममे से कोई भी भागदौड़ कर सकने वाला नहीं था।
’’ ऑटो कर लो! ऑटो! ये ऑटो आ तो जल्दी होटल वाले ने हमसे बिना पूछे ही ऑटो वाले को बुला लिया,जल्दी- जल्दी सामान चढ़या गया। हम लोग जब मोटर स्टेंड पहुँचे तो देखा कि तिवारी जी और शर्मा जी अपनी पत्नियों के साथ अगली सीट पर बैठ रहे थे। ऑटो वाले का किराया देकर हमारा सामान चढ़ाया गया। कल से सीट ही बुक थी इसलिए सभी को जगह मिल गई । थोड़ी देर सांस लेने के बाद त्रिपाठी जी ने शर्मा और तिवारी जी से ऐसे व्यवहार का कारण पूछा तो वे कहने लगे–’’ हमें भी नहीं मालूम था कि यही बस है ।’’
’’ फिर शर्मा जी सीट के पीछे आपका जांघिया गमछा कैसे सूख रहा है?’’
वे लोग हड़बड़ी में अपने कपड़े समेटना भूल गये थे, जिन्हें सीट रोकने के लिए फैला कर सामान लेने गये थे । त्रिपाठी जी की बात सुन कर उनसे कुछ उत्तर देते नहीं बन सका।
’’ आप लोग हमारी गाड़ी जान बूझ कर क्यों छुड़वाना चाहते थे? इसका उत्तर यहाँ नहींं तो बिलासपुर चलकर आप लोगों को देना पडे़गा। ’’समय देखते हुए त्रिपाठी जी चुप हो गये अब तक हमारी बस द्वारिका शहर से बाहर आ चुकी थी। मैंने पीछे देख कर द्वारिकाधीश प्रभु को मन ही मन प्रणाम किया और अपनी आँखें पीछे छूटती चिकनी चौड़ी सड़क की ओर कर ली जिसके दोनों ओर आधुनिक युग के शाहकार बड़े-बड़े भवन खड़े हैं, गायों का जत्था आता-जाता दिख रहा था, यहाँ की गायें बड़ी सिंग वाली हैं, उनके नीचे तक लटकते थन को देख कर अनुमान हो जाता था कि ये दुधारू नस्ल की हैं। ट्रक के चक्के वाले ठेलों पर सवारी करते लोग, सड़क के किनारे खड़े ठेले वाले सब पीछे छूटते जा रहे थे।
-तुलसी देवी तिवारी