कहानी: देहरी पर दीया
-तुलसी देवी तिवारी

देहरी पर दीया
दूर तक फैले गेहूँ, चने, सरसों, अलसी, धनिया, मिर्च के खेतों को देखर ही थी अभिरन ,धनिया के नन्हें-नन्हे सफेद फूल, अलसी के बैंगनी और सरसों के पीले ,ये सभी धरती की हरी चादर पर टंके हुए, प्रकृति की कसीदाकारी का प्रदर्शन कर रहे थे। अभी गेहूँ की बालियाँ अन्दर से झाँक रहीं थीं। इन्हीं में रमे हुए तो जीवन के चालीस साल गुजर गये थे। सकेती ने उसे कहीं जाने का अवसर नहीं दिया और दिया तो जैसे नाराज होकर कह दिया हो – ’’ जा! जब चाहे तब आना चाहे उसी तरफ रह जाना, शहर में रहना है न तुझे।’’ रोती हुई निकली थी गाँव से । रतिराम गंधर्व और बाबू, समारू गंधर्व की जुगल जोड़ी। दूसरे गाँव का आदमी कब अपना बन गया किसी को पता भी नहीं चला, किसी का दो एकड़ खेत गिरवी रखा था रतिराम ने सकेती में। जब खेत डूब गया, तब उसकी जोताई-बोआई देख-भाल के लिए उसने अपना एक छोटा सा घर भी बना लिया। वह मांदर बजाने में दिन को दिन और रात को रात नहीं समझता था, समारू तबला मास्टर ठहरा, रति का बेटा फगुआ कमर में मांदर बांधे रात भर करमा नाचता रह जाता, हाँ भई अभिरन भी साथ दे तब । रतिराम को गाँव में गहरे पैठ जमानी थी। फगुआ की नजरे उससे चुपचाप कुछ कह चुकी थीं। उसने हाथ जोड़कर समारू से अभिरन को मांग लिया। न कहीं जाना न आना, खेल का साथी जीवन साथी बन गया देखते-देखते। सकेती के गौंटिया बजरंगी महराज का परिवार भी अभिरन को कहीं जाने देना नहीं चाहता था, गौंटिन उसे अपनी बेटी जैसी मानती थी। आठ बेटों की माँ एक बेटी के लिए तरस कर रह गई थी। अभिरन का रूप-रंग चाल व्यवहार सब कुछ उन्हें बहुत अच्छा लगता था। वे जहाँ जातीं उसे साथ लिए जाती, कथा, भागवत, रामायण, गीता , वह बड़े ध्यान से सुनती-गुनती थी। गाँव की अन्य महिलाओं से अलग उसकी पहचान बन चुकी थी। करिया बहुत छोटा है उससे, गोद में पाला था उसने उसे लेकिन न जाने कैसे वह उससे जलने लगा।
’’ जा! जा! बामन घर के जूठा मांज! चिरई भूंजने के लिए कहा तो नानी मर गई, बड़ी आई सबसे प्रेम करने वाली, ’’दाई ! इसे बामन लोगों की संगत से दूर कर नहींं तो ससुराल में इसका गुजर नहीं होगा, हमारी जात में चलता ही है पीना खाना, ये इसे पाप कहने लगी है। ’’
’’ काम- बूता करने तो जाना ही पड़ेगा बेटा, दो चार चिरई मार लाने से पेट थोड़ी भरेगा। मानती हूँ कि खेत से धान चावल, सब्जी भाजी मिल जाती है, पर कुछ नगद भी तो चाहिए, बीमारी-हारी, बर-बिहाव, नता- गोता, सब तो है, चार पइसा लाती है नोनी ,वो ही तो सहारा है। तू जल्दी से बड़ा होकर घर संभाल ले, इसे तो इसके ससुराल भेज देंगे।’’ दाई उसे बहला देती । वह उसे अपने प्रेम का विश्वास कभी नहीं दिला पाई । नफरत का बीज धीरे-धीरे पेड़ बन गया। दाई के परलोक जाने के बाद बाबू करिया के लिए पड़ोस गाँव से बहू ले आये । तब तक तो अभिरन की गोद में सुभिया और सुबरन आ चुकी थीं । रबर की मूरत जैसी सुंदर-सुंदर। करिया औरत का ऐसा प्रेमी निकला कि बहन क्या बाबू को भी दिन में तारे दिखलाने लगा, तभी तो एक रात मद के नशे में जैसे ही करिया ने उन्हें धक्का दिया वे आंगन में लगे आमा रूख से टकराकर जो गिरे तो उठ ही नहीं पाये । सब कुछ जानकर भी अभिरन चुप रही, एक तो भाई का मोह । दूसरे परिवार समाप्त हो जाने का भय । सरपंच के नाम एक एकड़ जमीन करनी पड़ी उसे, तब कहीं जाकर मामाला रफा-दफा हुआ । बाबू के नहावन के बाद से अभिरन ने अपने भाई भौजाई से बात नहीं की, न उन लोगों ने कभी पूछा उसे । फगुआ अधिक दिन तक साथ नहीं निभा सका था । दोनो बेटियों को अनाथ कर वह अनंत यात्रा के लिए निकल पड़ा था। अभिरन ने चूड़ी पहन कर पुनः सुहागन बनने की बात सोची भी नहीं , अपनी बेटियों लिए मेहनत-मजदूरी का रास्ता चुन लिया। समय आने पर ससुराल से हिस्से में मिले खेत बेच कर दोनों के हाथ पीले कर दिये। इस बीच करिया के भी दो बेटियाँ हो गईं । बेटे के मोह में पड़कर उसने पहली औरतको छोड़कर दूसरी को चूड़ी पहना लिया । घर में होने वाले लड़ाई झगड़े की आवाज पूरे पारे में गूंजती थी, इधर नई वाली के भी दे बेटियाँ हो गईं। ले-देकर एक लड़का हुआ तो माँ उसे छोड़कर चली गई, जहाँ से लौट कर कोई नहीं आता। अपने को रोक नहीं पाई अभिरन, गई थी करिया के दुःख में शामिल होने और दोहरा दुःख लेकर वापस आई थी-’’ किरिया खा ली है क्या कि जब कोई मरेगा तभी आयेगी इस दरवाजे पर, क्या करने आ गई मेरी हँसी उड़ाने, जा चली जाऽ..! नहीं हैं तेरी सहानुभूति की जरूरत, मेरी औरत भाग गई, सबने पूछा लेकिन तू तो जनम की बैरी है नऽ..! बहन के नाम पर कलंक, रानी होकर बैठी है फिर भी नहीं चेतती,जा भई मेरा दिमाग और मत खराब कर। अभिरन रोते-रोते अपनी कुरिया में लौटी थी। उसी दिन से बुखार आने लगा था । मामी के नहावन में जब सुभिया, सुबरन आईं तो माँ की ऐसी हालत देख कर सकते में आ गईं । और तब सकेति छोड़ कर वह अपनी बेटियों के पास बिलासपुर शहर चली गई थी, जहाँ उसके बेटी दामाद रोजी मजदूरी करके अपना जीवन चला रहे थे। वर्षों गुजर गये उसकी देह ने नया रूप ग्रहण कर लिया। सारे दाँत झर गये, अंग-अंग पर झुर्रियों का साम्राज्य हो गया, बाल चाँदी जैसे सफेद हो गये। आँखों में चश्मा लग गया वापस आते-आते।
उस दिन वह अपने करिया भाई से कुछ पूछने आई थी, सारी घृणा और क्रोध दर किनार करके। लेकिन पूछे किससे वह तो हड्डी का ढाँचा बना मैली सी चादर ओढ़े जमीन पर लेटा था, पहचाना भी बड़ी मुश्किल से। करिया काला अवश्य था किंतु नाक नक्श बड़े सुंदर थे, छोटी-छोटी मूँछें फबती थीं उसके चेहरे पर। बंडी पहने चाहे कुर्ता, दिखता था एक सम्पूर्ण मर्द । यह कौन है, न जाने, वह सोच में पड़ गई थी। क्या पूछे उससे कि क्यों उसने अपनी बहन का हक मार लिया? क्यों उसकी जानकारी के बिना सारी जमीन औने-पौने में बेच दिया? कैसे उसने अपनी दूसरी पत्नी से अभिरन के बदले अंगूठा लगवा लिया। गाँव में क्या अब कोई नहीं बचा, जो समारू की बेटी अभिरन को पहचानता है? वह कैसे बताये कि उसने अपनी बेटियों के हक में दौड़-धूप करके सारे कागजात निकलावा लिये हैं, मुकदमा दायर करने के पहले एक बार पूछना आवश्यक था। उसे लग रहा था कि उसका भाई चाहे कितना भी कमीना क्यों न हो अपनी दीदी के साथ ऐसा कुछ भी नहीं करेगा। वैसे भी यदि वह मांगता तो उसकी दीदी मना नहीं कर सकती थी। उसे बड़ा माख लगा था जब सकेती के मनराखन ने उसे बताया था कि करिया ने सारी जमीन कलारों को बेच दी। वह नहीं चाहता था कि उसकी बहन को बाप की जायदाद में से कुछ भी मिले।
’’ हाय ! मेरी बेटियाँ इतने दिन से मुझे पाल रहीं हैं, इसी लालच मे तो कि माँ के हिस्से की जमीन आज नहींं तो कल मिलेगी ही । दोनो दूसरों के घरों में काम करके अपना परिवार पाल रहीं हैं, ऊपर से मेरा भार! ये अच्छा नहीं किया दुश्मन जैसे भाई तूने, अब मैं बेटियों की कर्जदार बन कर मरुंगी, क्या यही फल है मेरे जीवन भर के तप का।’’ वह अन्दर ही अन्दर घुट कर रह गई। जबान जैसे तालू में चिपक गई । करिया ने निरीह प्राणी की तरह अपनी आँसू भरी निगाहें उठा कर उसे देखा, फिर हाथ जोड़ लिए।
’’भाई … ये क्या किया तूने । अपनी भांजियों के गले पर छूरी चलाने से पहले एक बार तो भगवान् से डरा होता!’’ अभिरन बड़ी मुश्किल से कह पाई ।
’’ क्या करता, उन चारों की शादी न करता तो जानती है न क्या होता, वे सार्वजनिक मान ली जातीं, ऐसा ही होता है न हमारी जाति में । तूने भी तो अपनी जमीन बेंच कर अपनी बेटियों की शादी की । उन के मोह ने ही मुझे बेईमान् बना दिया दीदी, मुझे माफ कर देना । वह अभी खड़ी ही थी कि उसने सदा के लिए आँखे मूंद ली। उसके लिए रोने वाला कोई नहीं था। बेटियाँ अपने घर में और बेटे बहू कहीं कमाने-खाने चले गये थे।
अभिरन का भाई था वह। उसके आँसुओं ने उसकी बात नहीं मानी । धारो-धार बह चले। कहते हैं भाई भौजाई से मायका अमर होता है, माँ-बाप से नहीं , उसके तो सभी चले गये उसे छोड़कर । लडकियाँ आईं बहू -बेटे आये, बाबू की विरासत जान कर सबने उसे भला-बुरा कहा-’’ पापी था हमारा बाप, हमारे लिए नहींं तो अपने बेटे के लिए तो कुछ बचा दिया होता, अब कहाँ भटके वह रोजी-रोटी के लिए । ’’
’’अरे जब भाँची-भँचुरा का हिस्सा बेच खाया तो बेटा-बेटी की बात क्या कहते हो।’’ बड़की नोनी सुभिया ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई ।
उसे अच्छा नहीं लगा, ये लोग किसी के शोक में आये हैं या निंदा प्रस्ताव पारित करने आये हैं। पानी पातर काम काज निपटा। काम का दूसरा दिन ही तो है आज, पहुना अभी गये नहीं हैं, सब तैयारी कर रहे हैं । गोयल साहब आ गये, गाँव देखने का बहाना करके। अरे वही गोयल साहब जिसे मुकदमें के लिए लगाया था दोनो बेटियों ने, बड़े घाघ वकील हैं । ऊँचे-पूरे! चाँद धूप में चमकती रहती है, कनपटियों के पास थोड़े से बाल हैं उन्हें रंग कर करीने से कंघी किये रहते हैं। पिछले छः महीने से तहसील के चक्कर काट रहे थे, आगे-आगे गोयल , पीछे-पीछे अभिरन, लाठी की ठक्-ठक् के साथ । वकील का खर्च देने के लिए बेटी-दामाद कर्जे में डूब गये हैं। अभिरन पछताने लगी अगर जीभ पर वश होता तो क्यों मुँह से निकल जाता-’’ तू बहुत पछतायेगा करिया, अगर एक-एक, धूल वसूल न कर लिया तो मैं भी समारू की बूंद से जनमी नहीं। मेरी बच्चियाँ घर-घर जूठा धोयें और तू सगा मामा होकर उनके साथ दगा करे, ऐसा हो नहीं सकता। ’’ बस तो फिर क्या था दोनो बेटियाँ रणचंडी बन गईं। गोयल ने सब कुछ समझा दिया। केस का फैसला जल्दी कराने का वादा सुनकर सब को लगा कि बस अब सकेती में घर-खेत मिल ही गया।
गोयल को देख कर अभिरन के दिल की धड़कने तेज हो गईं। ’’मुकदमें के बारे में ही बात करने आया है। कोई मरे या जिये इसको क्या फर्क पड़ता है। उसे तो मुकदमें की फीस से मतलब है। बताओ यहाँ तक पीछे लगा चला आया। वह पिछले दरवाजे से खेतों की ओर निकल आई थी। उसके खेत तो जहाँ के तहाँ फैले हुए बेल-बूटेदार हरी चादर ओढ़े सो रहे थे ।
तितलियाँ भौंरे गुनगुनाकर उन्हें जगाने का प्रयास कर रहे थे । सूर्य भगवान् पश्चिम की ओर जा रहे थे । वातावरण में ठंड बढ़ने का संकेत मिल रहा था। वह खेत की मेड़ पर खड़े बूढ़े कोमस पेड़ से लिपट कर रो पड़ी,’’ हमारे पुरखों ने तुम्हें लगाया था, जब मैं छोटी थी तुम भी तो कितने पतले थे। अब तो मेरी अंकवार में भी नहीं आ रहे हो । जब खेत अपने नहीं रहे तब तुम ही कैसे अपने रह सकते हो। लेकिन तुम पराये भी कैसे हो सकते हो? तुम तो मेरी सारी पीड़ा के साक्षी हो, माँ मरी थी तब तो मैं रोज ही तुमसे लिपट कर रोती थी। फगुआ के नहीं रहने पर भी तुमने ही सहारा दिया था, सब कहते थे अभिरन चूरी पहन ले, कैसे कटेगी जवानी, कौन पालेगा तेरी बेटियों को ? मैने सबसे बड़े का आसरा लिया सब कुछ बीत गया। कितनी इज्जत वाले थे बाबू, उस पर कितना विश्वास करते थे, कहते थे –’’ अभिरन मेरे कुल को तारने के लिए मेरे घर आई है इसे किसी चीज का लालच नहीं है। मेरा बेटा है यह मेरे कुल का उजाला। और वह केसी है? बाबू कितने धोखे में मर गये। थोड़े से खेत के लिए तो अभिरन अपने मरे भाई को कोर्ट -कचहरी, गाँव-गिरांव नाते-रिश्तेदारी में बेईमान् साबित करने जा रही है। खेतों को कलारों ने खरीदा है वर्षों से काबिज हैं, वे क्या यूँ ही छोड़ देंगे? बेटियाँ जो कमायेंगी गोयल ले लेगा, दीवानी मुकदमों का हस्र जानती नहीं क्या अभिरन। उसके दिमाग में भयानक तूफान मचा हुआ था, जिन्दगी का अगला पिछला, हलचल मचा रहा था। लगता था जैसे सिर फट जायेगा तनाव के मारे। वह एक नजर खेतों पर तो दूसरी नजर बस्ती पर डाल रही थी उसने देखा कि उसकी दोनो बेटियाँ उसी की ओर चली आ रहीं हैं। मन हुआ कि भाग चले कहीं दूर जहाँ इनके प्रश्नों का सामना करना न पड़े, लेकिन काया में इतना दम कहाँ रह गया था।
’’ माँ! बिना बताये यहाँ आकर बैठी है? सब लोग खोजने लगे हैं , वकील साहब आये हैं तुझ से मिलने, चल के साफ- साफ बात कर ले। सुभिया ने पकड़ कर उसे उठा दिया। सुबरन ने भी सहारा दिया। वकील को आया देख कर जाने वाले रुक गये थे’ देख लें क्या होता है ? यदि बुआ को हिस्सा मिलेगा तो हम लोगों को भी तो मिलेगा। ’’ लड़कियाँ सोच रहीं थी।
गोयल साहब अपना कागज पत्तर फैलाये पेन से लाइन खींचते जा रहे थे।
’’आ माँ! जहाँ-जहाँ लाइन खींची है अंगूठा लगाती जा, मुझे जल्दी लौटना भी है। वकील अपनी व्यस्तता का प्रदर्शन कर रहा था।
’’ अब किसके खिलाफ मुकदमा लडूंगी बेटा? मेरा दुश्मन ही नहीं रहा’’ कहते कहते उसकी आवाज भर्रा गई ।
’’ उसके नहीं रहने से कुछ नहीं होता, तुम हिस्सेदार हो, जमीन अवैध तरीके से बेची गई है । अंगूठा जाली है , वैसे भी आदिवासी की जमीन खरीदने का किसी को अधिकार नहीं है। वह तो मैं वापस ले ही लूंगा। हाँ समय थोड़ा लग सकता है।’’
’’अब समय चाहे जितना लगे वकील साहब मुकदमा तो चलेगा ही, माँ को तो हमारी भलाई चाहिए, इसी ने तो हमे समझाया कि हक लेना आदमी का कर्त्तव्य है।’’ सुबरन बोल पड़ी।
’’ सच पूछो तो अब मेरी हिम्मत नहीं रह गई कोर्ट कचहरी में भटकने की। छोड़ो! जो उसे समझ में आया उसने किया,। गया अपनी करनी का फल भोगने। मैं फैसला भगवान् पर छोड़ती हूँ।’’ अभिरन ने पूरी तरह हथियार डाल दिये।
’’देख माँ! कहीं खर्चे से डर रही होगी तो उसका भी उपाय है, मैं एक पैसा नहीं लूंगा आप लोगों से, जब केस जीत जाऊँगा तब आधी जमीन मेरे नाम कर देना। मैंने बड़ी मेहनत की है इसीलिए चाहता हूँ की केस फाइल किया जाय और जरूर किया जाय। ’’
’’ चार एकड़ जमीन है, दो आप लेंगे, दो में एक एकड़ मेरे भतीजे का, उसमें भी पाँच हिस्सेदार हैं, एक एकड़ में मेरी दो बेटियाँ और उनके सात बच्चे ! क्या ऐसा मिल जायेगा बेटा, जिसके लिए मरनी काल में मायके का नाम डूबाने जाऊँ, छोड़िए, भगवान् जांगर बनाए रखेगा तो कमा खा लेंगे। सब कुछ बन जायेगा।’’अभिरन ने हथियार डाल दिये।
’’मेरा विश्वास तो करो माँ, बेटा हूँ तुम्हारा, इतनी मेहनत न की होती तो कहता भी नहीं, पहले जमीन आने तो दो! जो रहेगा उसमें बँट जायेगी जमीन, आप को अंदाजा नहीं कि कितनी महंगी है यहाँ की जमीन। ’’ गोयल के माथे पर पसीने की बूंदे झलकने लगीं थीं।
’’ देखो साहब! आप मेहनत किये हो तो फीस भी लेते गये हो, बस अब हमें आप की मदद की जरूरत नहीं है। आप रहो यहाँ, जो कुछ नून बासी है खाओ-पीओ मुकदमें की बात खतम हो गई।’’ अभिरन उठ कर वहाँ से जाने लगी।
’’ माँ! तू ऐसा कैसे कर सकती है हमारे साथ। अंगूठा तो तुझे लगाना ही होगा, मन से लगा चाहे बेमन से। तू ने ही अपने हक की बात उठाई थी, हमारा चालीस हजार तक लग गया मुकदमें की तैयारी में, कर्जे में डूब गये । चल अंगूठा लगा। केस लगा देते हैं, वकील साहब जब इतनी सुविधा दे रहे हें तो समझ ले कुछ दम है मुकदमें में , अपना हक छोड़ना तो कायरता है माँ।’’सुभिया ने उसका अंगूठा आगे करना चाहा।
’’राम बाबू देख ले इन को! मेरे साथ जबरदस्ती करना चाह रहीं हैं, जा दौड़ कर जा बजरंगी महराज के यहाँ , वहाँ मेरे आठ-आठ भाई हैं उन्हें बुला कर ला, सबका दिमाग ठीक करा देती हूँ। ’’ अभिरन के झुर्रियों भरे चेहरे पर क्रोध की लाली दौड़ गई। राम बाबू अपनी जगह से उठना ही चाहता था कि सुबरन की तेज आवाज गूंज गई पूरे आंगन में—’’ तेरा भाई ही नहीं तू भी बेईमान और लफ्फाज है, तेरा पूरा खानदान ही एक जैसा है, जा बुला ले अपने बीस भाइयों को । अब हमारे पास रहने की कोई जरूरत नहीं है, मरेगी तो कोई तेरे मुँह में पानी डालने वाला नहीं होगा, हमने न पाला होता तो बीस साल पहले ही मर गई होती।’’ वह हाँफने लगी थी।
’’हाँ!..ऽ…. हाँ!..ऽ…. नहीं जाऊँगी तुम लोगों के साथ, अपने मायके की देहरी पर दीया बारूंगी, और एक कोने में पड़ी रहूंगी, जब मेरा भतीजा आयेगा उसे एक लोटा पानी दूंगी। क्यों राम बाबू तुम्हें कोई एतराज तो नहीं है? सुबरन ने बड़े अधिकार से अपने भतीजे को देखा। राम बाबू के हाथों ने उसकी काँपती काया को संभाल लिया।
-तुलसी देवी तिवारी