कविताएं और संघर्ष
–वीरेन्द्र कुमार पटेल पिनाक

पिता
धन्य में बालक निर्बोध,
पिता के हित कुछ कर ना सका,
दिया है जीवन उसके लिए,
समर्पण हो ना सका।
हो गया व्यर्थ जीवन,
पिता के उपदेशों पर चल ना सका,
नाम मिला है जिससे,
उसको मैं वरण न कर सका,
स्वार्थ शक्ल जग माया में,
बंध कर ही रह गया,
पिता के हित कुछ करना सका ।।
मरण को जिसने बरा है,
उसी ने जीवन भरा है,
जब हुआ वंचित जगत में पिता से,
स्नेह,गर्व, प्रेम,ज्ञान से सदा वंचित था ।।।
खड़ी है दीवार जड़ की घेर,
बोलते हैं लोग जो मुंह फेर,
विश्व गगन में नहीं दिनकर,
नहीं शशिधर,नहीं तारा,
पिता बिना है व्यर्थ जीवन सारा।।।।
प्रतिक्रिया
लिखें हुए अफसानों की,
पढ़ते हुए अरमानों की ,
बीते हुए बचपन की,
मिली हुए जवानी की,
प्रतिक्रिया है ये !
चलते हुए राहगीर की,
रुके हुए मेहमानों की ,
बनी हुए तस्वीरों की ,
और, चित्रों की ,
प्रतिक्रिया है ये !
जीवन की मिली हुए
रिश्तों की ,
टूटे हुए सपनों की ,
बनते हुए कामों की ,
प्रतिक्रिया है ये !
खेतों और खलिहानों की ,
बदलते मौसम की
गढ़ते हुए रंगों की ,
खुलते आसमानों की ,
प्रतिक्रिया है ये !
मिलने और बिछोड़ने की ,
बनते और टूटते अरमानों की ,
पाने और न पाने की ,
जाने और अनजानों की ,
प्रतिक्रिया है ये !
काली अंधेरी रात
दुनिया के हर कोने को ढूंढ आया,
जीवन के हर पथ पर छलांग लगाया,
पथिक सारे मिल गए, अंधेरे में डूबे हुए,
स्नेह ,प्रेम, गर्व, त्याग ना देख पाया,
घर-घर में अंधकार की छाया,
काली अंधेरी रात की यही है माया।
दीपक हजार जलाए मगर,
अंधेरा है कि हटता ही नहीं,
अंधकार के तम में मन यह,
लोगों का डूबा तन पाया
हजार रावण जला लिए पर,
मन का रावण जला ना पाया,
सारे के सारे दीपक कहां गए,
जो ज्ञान की रोशनी बांटते हैं,
उस काली अंधेरी रात ने,
शायद उसे निगल लिया है,
अंधेरी रात में सारा,
युग का युग डूब गया है।
शहीद
एक नहीं दो नहीं बहुत सारे,
लोगों की करुण स्वर का,
पुकार है यह,
बहता है खून की धारा,
न जाने कितने मार्मिक कहानी,
मैंने सुने हैं,
किसी के बेटे, भाई, पिता, मित्र को,
खोया होगा,
देश की खातिर जान निछावर,
कर डाले।
एक नहीं दो नहीं बहुत सारे बच्चों की
आंसू है यह,
एक नहीं दो नहीं बहुत सारे मां की
करुण पुकार है यह,
एक नहीं दो नहीं बहुत सारे बहन की,
राखियों के बंधन प्यार है यह,
एक नहीं दो नहीं बहुत सारे दोस्तो का,
अश्रु की धारा है यह।
जीवन जीने की इच्छा शक्ति है पिता का,
वह मेरे देश का वीर जवान, देशभक्त, हैं ओ।
हाय पैसे तूने क्या किया
हाय पैसे तूने क्या किया?
मनुष्य को मनुष्य न रहने दिया,
सारे बंधन और रिश्ते तूने,
यों ही तोड़ा,
मर्यादा तूने क्यों तोड़ा,
हाय पैसा तूने क्या किया।
मानव जन को तूने,
कौन-सी खायी में ढकेला,
सारी संवेदना की पड़ताल कर,
मनुष्य को संवेदनहीन कर छोड़ा,
हाय पैसा तूने क्या किया?
भाई- भाई के बीच तूने दीवार बन,
भाईचारा को कहीं न छोड़ा,
रिश्ते सारे तौले गए हैं,
आज पैसे तौले जाते,
लोग फिर बाद में पश्चाताते,
हाय पैसा तूने मुझे कहीं का न छोड़ा ।।
प्रेम, दया, करुणा, सद्भावना,
सारी मानवता मर गई,
तेरे आगे झुक गई दुनिया सारी,
पैसे तूने ये क्या किया?
यथार्थ का बोध
न कोई यहां,
जिसको देखने से,
मुझको तस्ली हो,
गांव- शहर के,
फिर भी बसेरा,
है मेरा यहां,
न जाने क्या?
कब- कैसे क्यों?
मुझे सब पर,
फिर भी विश्वास,
भ्रम-संशय- घात,
आस्था के मार्ग,
पर क्षण भर,
अनास्था का प्रशाद,
कैसा यह बात,
हूं मैं भी यहां क्यों?
घृणा के समीप,
बैठा था और,
पाया मैंने यह,
प्रकाश- तम से,
कहीं ले आया,
बहुत दूर- दूर,
टक्कर मारी तो,
गिरी ब्रजपात-सी,
दुख: का हुआ,
मुझे आभास-आभास,
होना न होना,
यू मेरा क्या?
विष का पेय,
कर अमृत का,
संचार माध्यम ही,
शायद यही मेरी,
अन्तिम नियति है,
जो डाले स्वप्न,
मृदुल कर रही,
कांटे बो रही,
पैरों पर यही,
चुभ-चुभ कर,
मुझे यथार्थ का,
बोध करा रही।
मिट्टी तुझे अर्पण
जीवन मुझे तुमसे ही मिला,
मिटाता चलूं सारे शिकवे गिला,
चाहे हो यह भोर-शाम मिला,
सुखद जीवन का ठोर मिला,
करता हूं मैं तुझको ये अर्पण ।
पाया है तुझसे मैंने ये नाम,
करता हूं मैं तुम को सलाम,
जीवन जब तक रहे,
सदा ही करता रहूं प्राण निछावर,
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी,
यही दिन रात में यह जपूं ,
सदा करूं मैं समर्पण,
और करूं रक्त समर में
मिट्टी तुझे अर्पण।।
बनूं धीर- धैर्य और गुणवान,
बढ़ाओ में तुम्हारा सम्मान,
बनूं मैं सदा गौरव, अभिमान,
मार्ग तुम मेरा प्रशस्त करो।।।
किसान बन उपजाया मैंने अन्न,
मजदूर बन किया मैंने निर्माण,
शिक्षक बन किया ज्ञान का प्रकाश में,
और मनुष्य को मानवता सिखाया,
इस तरह जीवन समर्पित करता रहूं मैं,
और दू त्याग, बलिदान सदा,
मिट्टी तुझे अर्पण।।।।
याद रखेंगे वीर जवानों को
याद रखेंगे वीर जवानों को,
जिन्होंने मातृ भूमि के खातिर जान गवाई,
खून से अपने देश को सीचा,
धरती को हरियाली बनाई,
ऐसे वीर जवानों को,
मैं नमन करता रहता हूं,
मैं शमन करता रहता हूं,
ऐसे वीर जवानों को।
मैं वंदन करता रहता हूं,
जिन धरती पुत्रों ने,
अपनी जान गवाई,
प्राण निछावर करके,
दुनिया में शांति फहराई,
याद रखेंगे ऐसे वीर जवानों को,
जिसने जान गवाई,
देश की खातिर अपनी प्राण गवाई,
धन्य ओ मॉंऐं होगीं,
जिन्होंने इन पुत्रों को जन्म दिया,
त्याग, समर्पण, प्रेम, देशभक्ति का,
मार्ग प्रशस्त किया,
यताना सह यह नारा दिया,
जय हिन्द-जय हिन्द,
भारत माता की जय कहा ।।
धन्य ओ बहनें होंगीं,
जिन्होंने अपने भाइयों को,
देश की खातिर निछावर किया,
सौभाग्यशाली हैं ओ पिता भी,
जिन्होंने वीर पुत्रों को जन्म दिया,
गुणवान बनाकर वीरों को,
देश के खातिर समर्पण किया ।।।
हे जन
हे जन! सत्य पहचान ,
जीवन मंत्र से अभिमंत्रित,
नए पथ पर अग्रसर ,
प्रकृति से छेड़छाड़ न कर,
आज तू क्यों पछताप,
में जल रहा है।
बिताएं बिना विचारे,
जीवन जिए जा रहा,
हे जन! जीवन में विष घोल,
आज महाकाल को देख,
लिया है शरण तू प्रकृति का,
फिर करता है कैसा खंडन,
तू संभल जा अब भी ,
समय तेरे पास हे जन!
चल तू सत्य,धर्म में,
मानवता का हत्यारा न बन
हे जन! ले तू इस प्रकृति का शरण,
ले तू इस प्रकृति का शरण।
एकांतवास
जब जब करीब था,
तुमने दूरियां निभाया,
जीवन का संदेश तुमने सिखाया,
मैंने भ्रम में रहकर,
एकांत पाया ।
हमेशा तुम मुझे स्पर्श कर
मेरे गात पर क्षण भर को,
तुमने निभाया,
जब जब देखा मैं एकांत पाया,
जीवन भर का संचित ज्ञान,
तुमसे बना मैं महान्,
वरना था मैं अनजान,
दिया तुमने यह वरदान,
तुम्हारे रूप कई,
कभी जल, वायु,मिट्टी,
अग्नि और आकाश के अभिन्न अंग में,
रह गया में फिर भी एकांत।
प्रकृति हूं मैं
जीवन जीना चाहती हूं,
अभी अभी मेरा रूप था,
मानव ने कुल्सित किया,
मैं हुई अभिसापित हूं,
तुमने मुझे समझा न,
जन्म से तुमको मैंने पाला,
मैं तुम्हारी जननी हूं,
मुझ पर दया करो,
मुझे मारो मत ,
मैं जीवन देना जानती हूं,
मैं मोक्ष देने वाली हूं ,
मुझे समझो मैं प्रकृति हूं,
तुम दूर हो नहीं सकते मुझसे,
सारे अंग मुझसे बने,
और
अंत में मुझमें विलीन होगे,
यही सत्य है पहचानो इसे,
मैं प्रकृति हूं मुझ पर दया करो।
और जानें मुझे
मैं प्रकृति हूं !
काश मैं मनुष्य न होता
काश मैं मनुष्य न होता,
तो ये बंधन न होते,
न कोई अपना होता न कोई पराया,
सारी दुनिया मेरा होता।
न पाने की इच्छा होता न खोने का डर,
जो भी होता सबका होता,
धरती सारी, आकाश सारी मुक्त होती,
चिड़ियों की तरह गगन में उड़ता,
रिश्ते सारे भ्रम न होते,
सामाजिक बंधन से मुक्ति मिलती,
काश मैं मनुष्य न होता।।
कोई छोटा न कोई बड़ा होता,
मन में मेरे लोभ, मद,मोह, अर्थ, काम से
जीवन मुक्त होता,
सबके सब दुःख- सुख में काम आते,
काश मैं मनुष्य न होता।।।
कोई सभ्य न, न असभ्य होता,
जीवन की सच्चाई से अवगत होता,
भाव न होते, न अभाव होते,
न किसी से प्रेम न बैर होते,
क्यों नहीं हम सब हम होते,
काश हम सब अकेले न होते,
काश हम मनुष्य होते।।।।
आत्म संघर्ष
जीवन के अंधेरे में,
दुपकी हुई बैठी,
रोशनी कहीं,
जिसे ढूंढने की कोशिश मैं,
बैठा हूं सदियों से,
और,
हर बार लड़ता हूं,
अपने बहुरूपिए ,
आत्म संघर्ष से।
कहीं मर- सी गई है,
आशा,
और बच गई,
हताशा कहीं न कहीं,
सोचता हूं और
पूछता हूं की,
मेरे हिस्से की रोशनी कहां है,
जिसे सदियों से संघर्षरत,
एकांत, विरल, गुंजायमान,
आकाश में ढूंढता हूं,
फिर होती है आत्म संघर्ष।।
न जाने कितने अहम ,
पाल रखा है,
स्वार्थ के दीवार से प्रेरित होकर,
बूझ गई है आंखों की रोशनी,
और अचानक ही अंधकार छा गया हो,
इस आत्मसंघर्ष में।।।
एक दीवार से दूसरे दीवार ,
में उलझ कर रह गए,
सारे भ्रम छोड़कर किसी एक मरते हुए,
आशा को जीवित रखना चाहता हूं,
इस आत्म संघर्ष में।।।।
निर्जीव
लगता है कि अब यहां
निर्जीव ही बसे हैं
और
मर चुकी है इंसानियत
कहीं दफ़न हो गई है
आस्था
लगता है जहा में अब
कोई मंजिल ही नहीं है केवल
मौत
ने ही पसार लिया है दुनिया को
और बिखेर दिया है शमशानों में
कतार
बस कतार लगी है
लगता है मानव केवल मिट्टी में
मिलने
आ गए धरा पर
अब सब निर्जीव
अब सब निर्जीव…..
बस चार कंधे चाहिए
जीवन को बेहतर बनाने में
सदियों लग गई
मगर जीवन ज्यों का त्यों
रह गई
सारे कटुता
मिटाकर जीते हैं लोग
रिश्ते नाते, कुटुम्ब, परिवार
के पास जाने को
की मरने से पहले कोई
चार कंधे चाहिए मुझे
इस मौत से पहले
केवल चार कंधे बस चाहिए
इस मौत से पहले
क्या मालूम था
की
कोई इस तरह दस्तक देंगी
जिन्दगी में शून्य हो गए
सारे रस्ते पे
एक अनजान सी
लग रही है
जिंदगी
बस चार कंधे चाहिए
मुझे
मौत से पहले।।
सन्नाटा
कई दिनों के बाद,
सड़क पर सन्नाटा छाया है।
बाग बगीचों में भी,
गार्डन की बेरुखी,
बाजारों में तेजी से सन्नाटे ने,
एकाएक घर कर लिया है।।
और सारे जहां के बच्चों ने ,
घर में सो गए हो,
प्रतीत होता है कि,
ये सन्नाटा मौत के सौदागर,
के आने से हुए,
चहल कदमी में है।।।
इस मौत ने सब श्मशान भूमि में,
परवर्तित किया है,
जैसे कई सालों से,
इंतजार में था,
की कब सन्नाटा छाये,
इस जिन्दगी में,
बस सन्नाटा है।
इस पथ पर
बहुत सारी अनजान पथ में,
सलीके सीखे जीने के,
मगर जीवन की अनचाही,
इच्छा ने एक,
क्रमिक विकास की गति को,
रोक दिया ।
और
अनचाहे पथ पर ढकेल दिया है
ना जाने ओ कौन-सी रास्ते हैं
जिन्हें इंसान जीवन भर तलाशता है
उन अनछुए पहलुओं को
और
चलता रहता है
इस पथ पर…..
इस पथ पर…।।
अंतिम यात्रा
ना जाने कितने सपने,
संजोए बैठे हुए थे,
लोग
की कहीं से खुशी आ रही होगी,
लेकिन पता नहीं था,
की कोई मौत का सौदागर,
घुम रहा है।
लोगों के बीच,
और
सीखा देना चाहता है,
मरे हुए इंशानियत को,
की अंतिम यात्रा पर चलो,
और
भूल जावो,
की कभी ,
मौका मिल सकता है ।
जानें का
इस अंतिम यात्रा के बाद
बच गई है
बस
अन्तिम यात्रा….
अन्तिम यात्रा….।।।
चौराहे पर
दस्तक दे चुका है,
जीवन में,
हार और जीत दर्ज कर,
भागम भाग भरी जिन्दगी
में आखरी सांस तक,
बैचेन कर देती हैं।
और
सन्नाटे लाकर खड़ा कर देती
हर चौराहे पर
एक व्यक्ति सुरक्षा घेर बना
खड़ा रहता है
और
रुक जानें को कह रहा
फिर भी
अनजान पथ में लोग
भागते हुए
सहसा टकरा जाते हैं
हर चौराहे पर
सभ्यता संस्कृति को छोड़
अपनी नई दुनिया
बुन लिए
खड़े हो गए।
पथ पर अग्रसर,
मानव से दानव,
इंसानियत से हैवानियत,
कर्म से कुकर्म,
के भागी बन गई।
चौराहे पर,
इस पथ पर अग्रसर हो,
आज सारे चौराहे पर खड़ा,
सुनसान सड़क पर विचार कर रहा।
और कह रहा कि,
मौत आएगा सबको,
एका एक बार,
फिर लोग घूमेंगे,
उल्लू सीधा करने को,
इन चौराहे पर।
क्रमिक विकास
जिक्र नहीं है,
फिक्र नहीं है,
कवायद तेज हो गई,
मुवाइजे लेश हो गई,
खो गई परिणीती ,
और
खो गई इंसानियत,
बची की बची रह गई,
एक क्रमिक विकास।
विकास यात्रा,
पर शव यात्रा,
दफ़न हैं लोगों का वजूद,
और ,
बची रह गई है,
राजनीतिक पापड़ बेलने को,
कवायत होना चाहिए,
इंसानियत जिंदा रहे।।
मुझे सफ़र करना है,
लम्बा,
लेकिन कोई कार्रवाई चाहिए,
सिफारिस नहीं,
सुनवाई चाहिए,
गुजरे ज़माने के,
गड़े मुर्दे उखड़ना,
छोड़ दो,
नहीं तो सब मुर्दे हो जायेंगे।।
विकास रैली में,
शामिल वहीं लोग ,
होते है जिन्होंने,
अपने होने या ना होने का,
क्योंकि परीक्षा यहां सभी को देना है,
चाहें पढ़ा लिखा हो ,
या अनपढ़ या अंगूठा छाप,
छोड़ दो,
पहले लिस्ट में शामिल गरीब
शामिल हुए करते थे
आज अमीरों की बारी है,
क्रमिक विकास फ़िर
क्रमिक विकास…।
कभी घर बना लिया होता
अरे!
कभी घर बना लिया होता,
जिन्दगी में किसी को,
हमसफ़र बना लिया होता,
किसी के दिल में जगह बना लिया होता,
अमीरी -गरीबी के फासले मिटा दिया होता,
मेरे भारत वर्ष को स्वर्ग बना दिया होता,
ज़मीन पर चल के देखों
पानी में लड़ा न होता,
बड़े पैमाने में धरती पर बारूद न बिछाते,
आज जहां पर कीटाणु, विषाणु और अणु न होते,
जो मानव मनुष्यता न भूली होती,
तो प्रकृति विकराल रूप न लेती
अगर बनाना चाहते हो तो इंसानियत जिंदा रखों दिलों में
किसी के लिए घर बना लिया होता…
किसी के लिए घर बना लिया होता…।।
भूख
कहीं पेट की किसी कोने में,
बैठा रहा करता है,
यह भूख,
निगल जानें को,
सारे भोजन को पचाने में,
और गलाने में,
सहसा तड़पती हुई ,
पेट की ज्वार अग्नि,
कहती हैं,
मरे हुए मस्तिष्क से।
की अब कुछ तो डाल,
नहीं तो,
रहा न जाएगा,
इस भूख से मर जाऊंगा,
सारी दुनिया को,
जरा हटके देखा की,
एक बार की भूख,
सही नहीं जाती,
वे कैसे जीवित होंगे,
जो हमेशा भूखे पेट ,
जिन्दगी गुजारा करते हैं।।
और
एक रोटी की तलाश में,
घर घर जाकर मांगा करते हैं,
जरा पेट को रहम न आया,
की अंतिम यात्रा तक ,
बनी रहती है ये भूख,
न जाने कब खत्म होगी,
लोगों की भूख।।2
नया जमाना आया है
एक मां कह रही है
अपने बच्चे से
की
तुम जल्दी उठा सोया करो,
नित्य योगासन प्राणायाम
किया करो
मोबाईल मे ज्यादा न लगे रहो,
पुस्तकों भी थोड़ा खोला करो,
खाना पीना समय में कर लो,
अपनों की बीच भी बैठा करो,
बढ़ों को आदर सम्मान दिया करो।
अब बच्चा मां से कहने लगा
ये नया जमाना आया है
जो तुम कह रही हो,
अब ना ऐसा जिया जायेगा,
समय न सोया ना उठा जाएगा,
क्योंकी मोबाईल से ना रहा जाएगा,
नित्य योगासन प्राणायाम न हो पाएगा,
क्योंकी पब्जी से सारे आसान होते हैं,
पुस्तकों से भला पढ़ाई होती है,
सब यहां ऑनलाइन होती है,
गेम डाउनलोड करें से भूख पियास नहीं लगती हैं,
मोबाईल से और कोई अपना कहां
मां बाप से भी ज्यादा करीबी होती है
जो हमे गेम डाउनलोड कर देगा
उसका ही सम्मान दिया जाएगा
बाकि मोबाईल पर छोड़ दिया जाएगा
क्योंकी ये सब गूगल बताएगा।।
एकल परिवार
जीवन एक वंश वृक्ष है,
जो मां- बाप से बनता,
एक – दूजे के बिना संभव नहीं,
यह परिवार बनता। 1
वटवृक्ष की तरह कई शाखाएं होती,
इसकी जड़े बहुत दूर-दूर तक फैली,
मजबूत होती है ये जड़
काटने से भी नहीं टूटती श्रृंखलाएं इसकी,
एक वार से नहीं कई वार से बनता यह परिवार।।2
बरगद की तरह कभी विशाल हुआ करता है यह अनोखा मेरा परिवार,
जहां प्रेम, समर्पण, करुणा , दया,
कर्त्तव्य की बाते सीखकर ,
जीवन को संस्कार से सींचते।।।3
बड़े बुजुर्गों से जीवन का मूल मंत्र, सीखते और जीवन सफल बनाते,
लेकिन विडंबना देखिए आज,
हम हुए हैं एकल परिवार,
लगता हैं सब कुछ होते हुए भी,
हम सब हैं अनजान ,
परिवार से ही हैं सब सुख दुःख का समाधान।।।।4
आज अपने अपने घर ,
स्वार्थों के चलते टूट गई है ,
यह परिवार,
रह गया हूं आज अकेला मैं ,
ना मेरा घर – द्वार ,
आज बीता रहा हूं,
बनके एकल परिवार
एकल परिवार।।।
मरना ही सच्चाई है
आदमी को गुमान है
लेकिन फिर भी अभिमान है,
लोग पूछते हैं यहां?
आदनी क्या है?
यहां सभी ऑनलाइन है,
मेरे पास न बिस्तर है
न चारपाई है,
जिन्दगी खूब हमने पाई है
मौत ही सच्चाई है।
बटेर लिया खज़ाना,
नहीं है ले जाना,
लेकिन सबने कमाई है,
पैसा, धन, दौलत, शोहरत
हासिल किया,
सारे मुकाम हासिल किया,
मगर मरना है ही सच्चाई है।।
दो वक्त की रोटी,
तन ढकने को कपड़ा,
रहने को छत ,
यहीं काफ़ी है तो फिर क्या?
लूटने लुटाने को पाने की होड़ लगी की मरना ही सच्चाई है।।।
आदमियत
न जाने कितने समय में,
निकल पाएगी,
इस गुफागुह में से
आदमियत,
न जाने कितने समय में,
निकल पाएगी,
इस मन में बसे,
आदमियत,
ख़ामोश थे सत्यधर्मी,
अपने सपनों को साकार करने,
महत्त्वाकांक्षी जीव,
अपने ही अंदर,
आदमियत को ।
दबाएं अंधेरे को,
बाहर चीर कर
निकलने की चीख,
और बेबशी को,
मुक्त कराने वाली,
संचित ज्ञानकोश की,
विचित्र शक्ति जो,
इस मौन आदमियत को।
आख़िर क्या है,
क्यों है, कब तक यूं ही,
दबे-दबे सी
कुंठा, ग्लानि, विभात्सना,
भर रहेगी इस
आदमियत में।।।
तलाश जारी है,
मेरे अंदर की
आदमियत को,
ख़ोज पूर्ण हो
इस पथ में,
आदमियत को।।।।
माँँ में तुमसे दूर हूँ
मां में तुमसे दूर हूं,
कितनी प्यारी है,
सबसे न्यारी न्यारी है,
भोली भाली है मेरी मां,
मां में तुमसे दूर हूं ।
मां मेरी तुम पहचान हो,
इस धरती में वरदान हो,
नन्हे- मुन्ने हाथों को,
पकड़ कर तूने मुझे,
चलना सिखाया तुमने,
अपने हाथों से खिलाया तुमने,
मां में तुमसे दूर हूं।।
प्यारी प्यारी लोरी गाती,
चिड़िया की तरह घोसलों में,
अपने साथ सुलाती,
मां मुझे प्यारी प्यारी,
कहानी सुनाती,
मेरे सपनों को पंख लगाती,
मां में तुमसे दूर हूं।।।
सारा गांव सो गया
सारा गांव सो रहा,
अकेला जग रहा,
कोई,
इस अंधेरी रात में,
नीद कहीं मेरी खो गई ,
सन्नाटे में ख़ोज रहा है,
कोई मंज़िल,
जो,
टूटते हुए रात को,
तारों से,
पूछता है कि कहा है,
मेरे अंदर के सपनों का चांद ,
जो व्यक्तिगत आलोचनाओं,
का से परे जिन्दगी को,
ख़ूब टटोलकर सच्चाई ढूंढ़ रहा,
कहना चाहती हैं ,
कोई नईं कहानी,
अपने ही रस्ते पे ,
एक ब्रम्ह राक्षस को,
और कहने लगा की
स्वार्थ, तृष्णा से भरा है,
मानव आज भरा है,
लेकिन मैं जग रहा हूं
आज भी अकेला,
सारा गांव सो रहा है,
न जाने कब जगेगा?
सारा गांव सो रहा।
अनाथ हो गए सनाथ
बिन मां -बाप के बच्चें,
अनाथ हो गए सनाथ,
ना जाने क्यों मुझे।
लगता है इनके नाथ कहां हैं,
वे बेबस, बेपनाह, बेइंतेहा,
जन्मे बच्चों का,
खिल्लोंने के इस हथियार में ,
छोटे उंगलियों पे लाद कर,
इंसान से आदमखोर भेड़िए का,
रूप दे दिया जाता है,
इन चौराहे पर खड़ा कोई,
दो आनेके लिए हाथ फैलाए हुए,
आशा भरी निगाहें से देख रहा,
सोचता है हीनता और घृणा से,
शायद ये जल रहें भूख की,
तड़प रही हैं और कह रही है,
तुम कहां हो अनाथों के सनाथ
तुम कहां हो अनाथों के सनाथ।।
अवसाद
कल्पना के लिए,
मन में विश्वास जगे,
जीवन कर्म पथ में,
मिट्टी, पानी,अग्नि, वायु,
आकाश के अवसाद में,
ब्रह्माण्ड में,
अवसाद ग्रस्त व्यक्ति हूं।
बहुत चला,
इन चौराहे पर,
रस्ते पे,
लिए हुए अपने सपनों को,
पंख लगाती हुई ,
धूल भरी सड़कों पर,
अवसाद ग्रस्त हूं।।
खोखले दावे को,
लेकर आदमीयत,
इंसानियत, और ईमान
लिए हुए फिरता हूं,
जीवन मंत्र में,अवसाद ग्रस्त हूं ,
अवसाद ग्रस्त हूं ।।।
–वीरेन्द्र कुमार पटेल पिनाक