व्यंग: क्या करे क्या न करें
-डा.अर्जुन दूबे

1.कल के युग में क्या करें?
मुझे कुछ काम धाम दीजिए मालिक,याचक ने कहा।
कौन सा काम कर सकते हो दाता ने पूछा?
कोई भी काम, कोशिश करके सब कर लूंगा, याचक ने कहा।
लेकिन अब काम धाम के तरीके बदल गये हैं, जिसमें आदमी की कम मशीनों का अधिक इस्तेमाल हो रहा है। एक बात और ध्यान से सुनो। वह क्या?
यह मत समझो कि ऐसा बदलाव यहीं भर है, विश्व में सर्वत्र है। मशीन और तकनीकी का युग है, आदमी के युग को तो गये युग बीत गए। सोच रहा हूं कि कहां से शुरूआत करूं?
चलो खेती किसानी से शुरू करता हूं क्योंकि किसानों की बातें सभी करते हैं। जी मालिक, बताइए। हमारे पुरखे कहते थे कि -”पढल लिखल के कौन अकाजा, मारे कुदाल घर आवे अनाजा” लेकिन अब मशीनें है सब काम ही कर दे रही हैं, कुदाल कौन चलाएगा!काम कैसे! और देखो ,पहले चुनाव आने पर महीने दो महीने के लिए पीछे पीछे घूम कर जीने खाने का काम मिल जाता था, अब सब तकनीकी कर दे रही है। दस की भीड़ को दस हजार में बदल दे रही है। बहुत आदमी की जरूरत नहीं है।
कल कारखाना में तो काम मिल सकता है? वहीं पर कुछ काम धाम दिला दीजिए मालिक।
देखो भाई, वहां तो मशीनें ही मशीनें है, वह भी आटोमेटिक। सभी काम कर दें रही हैं, बहुत ही कम आदमी की जरूरत रह गई है और थोड़ी मोड़ी जरूरत है तो एक बोलावे दस धावे के हालात हैं।
कौनो स्कूल, कालेज अथवा आफिस में ही चपरासी के ही काम मिल जाये मालिक तो बहुते कृपा होती।
देखो, वहां तो और स्थिति खराब है। सभी काम कंप्यूटर जैसे मशीनें कर दे रही हैं, चाहे अपने देश में हो अथवा विदेश हो। पूरा विश्व डिजिटल हो गया है। यहां तक कि पढ़ने पढ़ाने के लिए भी कम लोगों की जरूरत है। वह कैसे मालिक? बिना गुरूकुल मतलब विद्या मंदिर के ज्ञान लेंगे -देंगे?
अरे, युग बदल गया है। जैसे बिमारी के इलाज के लिए कैप्सूल बने हुए हैं वैसे ही ज्ञान कैप्सूल और मेधा इंजेक्शन बन गये हैं। किसी अस्पताल में भी जाने की जरूरत नहीं है ।ये डिजिटल कैप्सूल तुम्हें तुम्हारे निवास स्थान पर ही, निवास छोड़ कहीं भी चलते, बैठे बैठे, कहीं से मनचाहे ज्ञान उपलब्ध करा दे रहे हैं।
लेकिन जिम्मेदार , जिम्मेदारी लेने से पहले प्रखर वक्ता-नेता के रूप में उभरते हैं– घोषणाओं में तो काम धाम, किसान रोजगार की बातें तो बहुत करते हैं!
अरे मूर्ख, वे भी डिजिटल हो गये हैं। वचनं किम् दरिद्रता!
समाज में अब मूल्य का क्या होगा?
मत दुखी हो अथवा कहकर दुखी कर, यही कलयुग है , सतयुग की प्रतीक्षा करो।
2. चलो, हैप्पी हो लें!
हैप्पी हैप्पी करते हो? वह क्या है ? हैप्पी क्रिसमस डे! पुनः एक हफ्ते के भीतर ही हैप्पी हैप्पी करेंगे। वह क्या? हैप्पी न्यू ईयर। फिर कब कब करते हैं? हैप्पी बर्थडे, हैप्पी मैरिज एनिवर्सरी डे और इसके अलावा भी अनेक हैप्पी डे आते हैं अथवा यूं कहो कि साल भर हैप्पी हैप्पी डे आते ही रहते हैं और लोग हैप्पी हैप्पी सेलिब्रेट करते हैं।
अपने डे को कब हैप्पी हैप्पी करेंगे? उसे हैप्पी नहीं कहते हैं। जो भी कहते हैं कब करेंगे? कौन करने से मना कर रहा है?
मैं संगम में स्नान करने अनेक बार गया हूं। नाविक नाव को गंगा जी और यमुना जी के संगम के पास अनेक नावों के साथ बांध कर स्थिर कर देते हैं जहां हम लोग स्नान कर लेते हैं। दोनों पवित्र नदियों के मिलन का विहंगम दृश्य होता है, जल धारा भी अलग अलग दिखाई देती है। किंतु कुछ दूर जाने के पश्चात जल में कोई अंतर नहीं दिखाई देता।काशी में तो गंगा ही गंगा और गंगा अपने अस्तित्व के साथ महासागर में समाहित हो जाती है जहां सागर ही सागर, अथाह और अपरिमित अवस्था में डराने से लेकर किलोल करता रहता है।
हमारे देश में जितनी विविधता है चाहे पंथ, आस्था, मान्यता, पहनावा, खान पान, संस्कृति, भाषा आदि की हो संभवतः विश्व के किसी देश में नहीं है। उनमें अंतर स्पष्ट दिखता है, जब हम किसी छोटी परिधि में देखते हैं। जैसे जैसे परिधि का आकार बढ़ता जाता है ये समस्त उसी में समाहित हो जाते हैं ठीक उसी प्रकार जैसे जल अनेक नदियों में अलग पहचान के साथ बहते हुए गंगा सदृश बड़ी नदियों में मिलते हुए अथाह सागर में समाहित हो जाता है। सनातन का यही सौंदर्य है कि सभी इसमें समाहित हो जाते हैं बिना किसी प्रतिबंध के, “अहं ब्रहमास्मि, त्वं अपि” के भाव लिए। जो डे है मनाओ, अच्छा लगा तो हम भी मनाएंगे, तुम्हें अच्छा लगे तो तुम भी मनाओ। वास्तव में अगर ध्यान दें तो सभी सबका किसी न किसी रूप में, व्यक्त अव्यक्त अवस्था में मनाते ही रहते हैं। विश्व के देशों में देखने की छोटी परिधि के कारण ऐसा समागम कहां मिलता है जहां सभी का अलग-अलग अस्तित्व होने के बावजूद विशालता में समाहित होते हों!
3.चलो थोड़ा चेतें:
कभी कभी समाचार पत्र पढ़ने को मिलता है कि अमुक विभाग में अमुक व्यक्ति के यहां छापे पड़े, इतने-इतने करोड़ की राशि जब्त की गई; मूक विभाग का अमुक व्यक्ति घूस लेते हुए पकड़ा गया। कार्य के बदले वेतन अथवा पारिश्रमिक के अलावा अतिरिक्त धन की चाहत संस्कृति में घोर इजाफा हुआ है। मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता है क्योंकि मूल्यों में जबरदस्त गिरावट आई है। गिरावट क्या कहें,धन की तृष्णा में विपुल वृद्धि हुई है।
मुझे कष्ट और निराशा का भाव तब महसूस होता है जब शिक्षण जैसे पवित्र पेशे में भी ऐसी बिमारी कोरोना सदृश फैल गई है अब ऐसे छापों वाले समाचारों से आश्चर्य नहीं होता है। बहुत कुछ बदल चुका है,कम से कम विगत दो दशकों से मूल्यों में बहुत गिरावट आई है। धन को ले दे कर मैनेज करने की जबरदस्त बिमारी लग गई है। क्या किया जाए,ऐसी बिमारियां शिक्षा जगत में भी तेजी से संक्रमित हो चुकी हैं।लोग मानने को तैयार ही नहीं हैं कि शिक्षण पेशे में उन्हें ईश्वर ने पवित्रता के साथ इमानदारी पूर्वक जीवन निर्वहन करने के लिए पवित्र अवसर दिया है। किंतु लोग तुलना करने से बाज नहीं आते हैं जबकि तुलना करने में दुःख ही अधिक है। अधिक अतिरिक्त धन की लालसा लिए व्यक्ति को कम से कम इस पेशे में प्रवेश करने से बचना चाहिए , लेकिन लालच! हश्र तो होना ही है।
4.उदय अस्त संवाद
उदय :क्या तुम जानते हो कि समस्त समस्याओं का कारण क्या है?
अस्त: नहीं महराज, बताइए सबको।
मैं खुद हूं, उदय ने कहा।
पर वह कैसे, अस्त ने पूछा?
देखो जब तक मैं हूं,लोग मेरी जयकार करते हैं। मैं कब हुआ, कैसे हुआ और क्या हूं, मुझसे अधिक लोगों को जानकारी रहती है।
हां, यह सही है, आप बड़े बन गये हो तो केक काटने से लेकर क्या क्या नहीं कटता है, बिना चवन्नी खर्च किए।
लेकिन अस्त, कभी कभी खुद की टी आर पी बढ़ाने के लिए बहुत धन खर्च हो जाता है, उदय ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा।
पर वह सब तो आप वसूल लेते हैं, अस्त ने कहा।
तब उदय मुस्कुरा उठा;आप की मुस्कान तो कुटिल लग रही है, अस्त ने कहा।
यही तो उदया की खासियत है,ऐसे ही मुस्कुरा कर तो औरों की मुस्कुराहट छीन लेता हूं।पर तुम तो मरे हुए हो,कर ही क्या सकते हो?न देख सकते हो और न सुन सकते हो। जहां हो वहीं पर पड़े रहो, उदय ने कहा।
इतना घमंड मत करो। तुम क्या जानो मेरी महिमा! तुम तो हर पल मेरी शरण में आते हो,भले ही तुम्हें नहीं पता हो। अस्त ने कहा।
वह कैसे, उदय ने पूछा!
तुम तो खुश होते हो कि मैंने बहुत कुछ पा लिया,पर इस खुशी को तुम्हारे विरोधियों ने ग्रहण लगा दिया है, तुम्हारे पुतले जलाने लगते है,काला झंडा आदि पता नहीं क्या दिखाते हैं, क्या क्या विशेषण तुम्हारे लिए प्रयोग करते हैं, अस्त ने कहा।
जो भी हो, मेरी महिमा को नजरंदाज नहीं कर सकते हो, तुम्हारे लिए भी तो विशेषण खूब प्रयोग करते हैं, उदया बोला।
हे उदयी, अब सुन मेरी महिमा। मैं अमर हूं।
वह कैसे? पहली बात कि मैं इन विशेषणों के कारण ही अमर हूं,लोग कहां छोड़ने वाले हैं! अस्ताचल बोला
आधुनिक मानव जन्म के फेर में कम पड़ रहा है। पितृपक्ष में श्राद्ध कर्म की उतनी महिमा नहीं रह गई है जितनी कि पुण्य तिथि की।
जरा विस्तार से बताओ, उदया ने कहा।
पितृपक्ष में तो सभी करते हैं और सभी पितर तर जाते हैं, लेकिन पुण्य तिथि की महिमा क्या पूछना! यह तो जन्म दिन को कभी कभी धूमिल करके लुप्तप्राय कर देता है, अस्ताचल ने कहा।
अच्छा अब छोड़ो, फिर चर्चा करेंगे। हम अनंत, हमरी कथा अनंता।
डा.अर्जुन दूबे
सेवा निवृत्त आचार्य, अंग्रेजी
मदन मोहन मालवीय प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय , गोरखपुर