सत्यधर बान्धे ईमान की गज़लें

(1)
ग़ज़ल :- हर जान बचाना है इस बार जमाने में
बहर :- 221 1222 221 1222
कुछ करके दिखाना है इस बार जमाने में
आफ़त को मिटाना है इस बार जमाने में
चल हो सके जितना भी हम हाथ बढ़ायेंगे
हर जान बचाना है इस बार जमाने में
जो बीत गया छोड़ों क्यों जान जलाते हो
हर डर को भगाना है इस बार जमाने में
क्यों भेद हमें करना अब अपने पराये का
घर दिल में बसाना है इस बार जमाने में
चारों ही तरफ़ फैली “ईमान” उदासी है
रोते को हँसाना है इस बार जमाने में
(2)
ग़ज़ल :- सर उठा के जीने का वरदान होना चाहिए
बहर:- 2122 2122 2122 212
बंद अब तो तुगलकी फरमान होना चाहिए
हर किसी के हिस्से में मुस्कान होना चाहिए
मांगता है हक यहाँ मजबूर दोनों हाथ से
सर उठा के जीने का वरदान होना चाहिए
दे रहा है धोका देखो अपनो को ही आदमी
इस तरह ना कोई बेईमान होना चाहिए
जो उठा ले गैर का भी दर्द अपने सीने में
हर किसी में अब वही भगवान होना चाहिए
कह रहा ‘ईमान’ यारों बात मेरी मान लो
आदमी को अब यहाँ इंसान होना चाहिए
(3)
ग़ज़ल :-भूखों को खिलाने में दुआ ढेर मिलेगी
बहर:- 221 – 1221 – 1221 – 122
रोते को हँसाने में दुआ ढेर मिलेगी
मरते को बचाने में दुआ ढेर मिलेगी
बेगम से कहो रोटी जरा और बना दे
भूखों को खिलाने में दुआ ढेर मिलेगी
दिल करके बड़ा छोड़ जरा आज नफ़ा को
नेकी को सजाने में दुआ ढेर मिलेगी
चारों ही तरफ़ मौत का ये खौफ़ बड़ा है
चल साँस दिलाने में दुआ ढेर मिलेगी
‘ईमान’ तुझे जोश सभी दिल में है भरना
ये जोश जगाने में दुआ ढेर मिलेगी
(4)
ग़ज़ल :-हौसले भी यहाँ मात खाने लगा
बहर :- 212 212 212 212
काफ़िया :- आने
रदीफ़ :- लगा
हर किसी को नया गम सताने लगा
रात क्या अब सुबह भी डराने लगा
खौफ़ में है घिरी हर तरफ़ जिन्दगी
हौसले भी यहाँ मात खाने लगा
ख्वाब तो ये नहीं है बताओं जरा
क्यों जमीं आसमाँ डगमगाने लगा
दर्द ही दर्द है तन बदन में भरी
शुक्रिया मौत का जो सुलाने लगा
अब दवा क्या करें क्या करें अब दुआ
छोड़ कर जिस्म को जान जाने लगा
नम निगाहों से जो कह सके अलविदा
होश उनका भी गम ये उड़ानें लगा
होड़ सी है लगी साँस ले लें जरा
दम घड़ी दर घड़ी लड़खड़ाने लगा
(5)
ग़ज़ल :-अब तक कुछ भी ठना नहीं है
बहर:- 222 – 212 – 122
काफ़िया :- अना
रदीफ़ :- नहीं है
माना डरना मना नहीं है
दिल पत्थर का बना नहीं है
घुटती साँसें कहे कहानी
अब तक कुछ भी ठना नहीं है
कैसे कोई हमें बचाये
तम्बू कोई तना नहीं है
पल-पल ये जो हमें डराते
क्या कोई सरगना नहीं है
पलके छलके घड़ी घड़ी में
फिर क्यों बादल घना नहीं है
आंसू में गम घुली मिली थी
फिर भी गम क्यों छना नहीं है
लथपथ है जो लहू में हरदम
वो ही दामन सना नहीं है
कैसे देखे तड़प किसी की
सत्ता का दिल फ़ना नहीं है
बोले “ईमान” चल चबा ले
लोहे का ये चना नहीं है
(6)
ग़ज़ल :- दिल इतना क्यों भला नहीं है
बहर :- 222-212-122
काफ़िया :- अला
रदीफ़ :- नहीं है
नेकी का फल फला नहीं है
आफ़त सर से टला नहीं है
औरों का गम हमें रुलाये
दिल इतना क्यों भला नहीं है
मातम पसरा गली-गली में
थमता ये जलजला नहीं है
प्यासी आँखें बहे मुसलसल
हिम्मत दिल में पला नहीं है
कैसे देखें दिलों के अंदर
आँखों को जो मला नहीं है
गहरा है कोहरे का बादल
दीपक कोई जला नहीं है
अंधेरे से लड़े लड़ाई
कोई यूँ मनचला नहीं है
चट्टानों सा टिका रहेगा
जिसने खुद को छला नहीं है
छोड़ों ‘ईमान’ दिल की बातें
तुझ में कोई कला नहीं है
-सत्यधर बान्धे “ईमान”
सराहनीय गजलें भैया जी।दिल इतना क्यों भला नहीं ,ये तो सचमुच अच्छा लगा हमें।
वाह बहुत शानदार
लाजवाब लेखन अद्धभुत प्रतिभा