स्वामी विवेकानंद- युवाओं का एक आदर्श नायक
-रमेश चौहान

आज 12 जनवरी स्वामी विवेकानंद का प्रकटोत्सव है, जिसे आज हमारे देश में ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ के रूप में मनाया जा रहा है । वास्तव में स्वामी जी का दर्शन एवं स्वामी जी के जीवन तथा कार्य, उनका आदर्श भारतीय युवकों के लिए प्रेरणा का बहुत बड़ा स्रोत है, स्वामी विवेकानंद सही मायने में युवाओं के एक आदर्श नायक थे ।
मेरा प्रथम आलेख -‘विवेकानंद-एक परिव्राजक सन्यासी’-
स्वामी विवेकानंद के पावन जन्मोत्सव के अवसर पर मैं अपने छात्रजीवन और अपने जीवन का प्रथम आलेख ‘विवेकानंद-एक परिव्राजक सन्यासी’ जिसे मैं 1993 में एक स्कूली निबंध के रूप में लिखा था, आज इसे मूल रूप में ही साझा कर रहा हूँ । छात्र जीवन से ही मैंने स्वामीजी अपने एक आदर्श नायक के रूप में माना है । यह आलेख मेरे महाविद्यालय शासकीय पं.जवाहर लाल नेहरू महाविद्यालय, बेमेतरा छत्तीसगढ़ के वार्षिक पत्रिका ‘प्रेरणा’ में शिकागो धर्मसम्मेलन शताब्दी वर्ष 1993 के अवसर पर प्रकाशित हुआ था ।
विवेकानंद-एक परिव्राजक सन्यासी
-रमेश कुमार चौहान (बीएस.सी द्वितीय वर्ष)
स्वामी विकेकानंद एक ऐसा नाम है जिसे भारत के ही नहीं अपितु पूरे विश्व के बच्चे से लेकर बुर्जग तक जानते हैं । स्वामी विवेकानंद एक ऐसे महामुरूष थे जो राष्ट्रप्रेम को ही श्रेष्ठ धर्म निरूपित किये ।
स्वामी विवेकानंद का जन्म कोलकाता महानगर में 12 जनवरी 1863 को एक संभ्रांत एवं प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था । बचपन में स्वामीजी को नरेन्द्र नाथ या नरेन कहा करते थे । उनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त एवं माता का नाम भुनेश्वरी देवी था ।
वाल्यावस्थ में नरेन्द्रनाथ एक चंचल प्रकृति के विनोदप्रिय बालक थे पर अध्यात्मिक विषयों के प्रति उनका अद्भूत आकर्षण था । साहस, परदु:खकातरता और भ्रमणशील सन्यासी जीवन के प्रति तीव्र आकर्षण उनका सहज स्वभाव था । इन्हीं गुणों के साथ एक अदम्य तरूण के रूप में उनका विकास हुआ ।
बचपन में नरेन्द्र अपने मित्रों से कहा करता था – ‘मैं तो अवश्य ही सन्यासी बनूँगा, एक हस्त रेखा विशारद ने ऐसी भविष्यवाणी की है ।’ वास्तव में वह बालक एक सन्यासी निकला जो सन्यासी न होकर परिव्राजक सन्यासी रहा अर्थात एक महान भाग्य विधाता बना ।
सन् 1988 में नरेन्द्र नाथ पहली बार अपनी अस्थयी तीर्थ यात्रा पर निकले 1890 में वे अपने गुरू भाइयों से विदा लेकर एक अज्ञात परिव्राजक सन्यासी के रूप में भ्रमण करने निकले और इस मध्य नरेन्द्रनाथ जी के दृष्टिकोण में एक विलक्षण परिवर्तन आ गया था । वह भारत की विशालता में स्वयं को विलीन कर देने की इच्छा से अपना परिचय गोपनीय रखने के लिए भिन्न-भिन्न नाम ग्रहण करते रहे । समता एवं एकता का सूत्र स्वामीजी अपने यात्रा के दौरान फैलाते रहे इसका द्योतक निम्न ‘सन्यासी गीत’ से होता है-
मत जोड़ो गृह-द्वार, समा तुम सको, कहॉं आवास ? दुर्वादल हो तल्प तुम्हारा, गृह वितान आकाश, खान-पान से कुलषित होती, आत्मा वह महान, जो प्रबुद्ध हो, तुम प्रवाहिनी स्रोतस्विनी समान, रहो मुक्त निर्द्धंद, वीर सन्यासी छेड़ो तान । ॐ तत्सत ॐ
इन्हीं भावनाओं को जागृत करते स्वामीजी अपनी यात्रा, भारत माता का निकट परिचय प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा तथा चतुर्दिक उत्पीडि़त भारत की मौन पुकार सुन कर वे हिन्दुओं के पत्रिम तीर्थ स्थान वाराणसी से प्रारंभ कर लखनऊ, आगरा, वृंदावन, ऋषिकेश होते पूरे भारत की यात्रा प्राय: पैदल ही पूरा किया । जहॉं कहीं भी वे गये जनसाधारण की दारूण दरिद्रता ने उनके हृदय को दग्ध किया । वह भार की दारूण दशा देख जन चेतना जागृत किया ।
भारत यात्रा के पश्चात स्वामीजी विदेश यात्रा पर निकले चीन, जापान, कनाड़ा होते हुये संभवत: 30 जुलाई 1893 को स्वामीजी अमेरिका पहूँचे । कैटोन में उन्होनें कुछ बौद्ध विहारों को देखा । जापान मे उस देश की औद्यौगिक उन्नति तथा लोगों की स्वच्छता की ओर उनका ध्यान विशेष रूप से आकर्षित हुआ ।
11 सितम्बर, 1893 को विश्वधर्म महासभा प्रारंभ हुआ । आर्ट इंस्टीट्यूट का विशाल सभा गृह, सात हजार ऐसे लोगों से खचा-खचा भरा था जो उस देश की सर्वश्रेष्ठ संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते थे ।
विश्व के सभी कोनों से प्रत्येक संगठित धर्म के प्रतिनिधि उस मंच पर उपस्थिति थे । स्वामीजी इसके पूर्व कभी इतने प्रबुद्ध जन समुदाय को संबंधोति नहीं किये थे । वे एकदम घबड़ा गये, किन्तु जब उनकी बारी आई तो उन्होंने मन ही मन विद्या की देवी सरस्वती को प्रणाम कर ‘अमेरिकावासी बहनों एवं भाइयों’ इन शब्दों के साथ अपना भाषण प्रारंभ किया । तरंत ही विशाल स्रोता समूह का मेघ गंभीर आनंदोल्लास पूरे दो मीनट तक प्रदर्शित होता रहा । सात हजार लोग एक अज्ञात शक्ति के सम्मान करने अपने पैरों पर खड़े हो गये । उनके सरल किन्तु ज्वलंत शब्दों, उनकी प्रमाणिकता, उनके महान व्यक्तित्व उज्जवल मुख-मण्डल, तथा गौरिक वस्त्रों का प्रभाव इतना अधिक हुआ कि दूसरे दिन समाचार-पत्रों ने उन्हें धर्ममहासभा का सर्वश्रेष्ठ वक्ता घोषित किया ।
धर्म महासभा के अन्य सभी प्रतिनिधियों ने अपने-अपने धर्म का प्रतिपादन किया था, किन्तु स्वामीजी एक ऐसे धर्म का प्रतिवाद किया जो आकाश की तरह व्यापक तथा सागर की तरह गहन था । उनके व्याख्यान का मूल स्वर विश्वजनीयता था ।
(पं. जवाहरलाल कला एवं विज्ञान महाविद्यालय बेमेतरा के वार्षिक पत्रिका ‘प्ररेणा’ 1993 में प्रकाशित रचना)
अन्य पठीनय आलेख- नेताजी सुभाषचंद्र बोस संपूर्ण वाङ्मय
सारगर्भित एवं प्रवाहपूर्ण
सादर धन्यवाद सर
स्वामी विवेकानंद के बारे में हर चीज नहीं जानती लेकिन वह तो सबके प्रेरणा है आप में मैंने अपने गुरु के रूप में एक पिता को देखा है आपसे मैंने बहुत कुछ सीखा है आपकी सोच भी सबसे अलग है मैं कोशिश करूंगी आप की जो सोच है उसको अपना सकूं
सादर धन्यवाद एवं शुभकामना । ईश्वर आपको जीवन में अनेक सफलताएं प्रदान करें
बहुत बढ़िया, छोटा पर अच्छा, सारगर्भित, हार्दिक बधाई।