चर्पटपंजारिका स्त्रोत हिन्दी में (लावणी छंद)
-रमेश चौहान
चर्पटपंजारिका स्त्रोत हिन्दी में

चर्पटपंजारिका स्त्रोत हिन्दी में –
हिन्दी में चर्पट पंजारिका स्त्रोत आदि शंकराचार्य रचित चर्पट पंचारिका स्त्रोत ‘भज गोविन्द भज गोविन्द मूढ़ मते’ एक सुप्रसिद्ध कृति है, जो मूल रूप में देवभाषा संस्कृत में है का हिन्दी भावानुवाद है। इस सत्रोत के महत्व को ध्यान में रखते जनसमान्य तक इसकी प्रेरणा को पहुँचाने के उद्देश्य से इसका हिन्दी के लावणी छंद में भावानुवाद किया गया है । आशा ही नहीं विश्वास है यह रचना आपको रूचिकर लगेगा । आपको सुझावों का सादर स्वागत है ।
आदि शंकराचार्य कृत चर्पट पंजारिका स्त्रोत का भावानुवाद
(लावणी छंद)
ध्रुव पद-
हरि का सुमरन कर ले बंदे, नश्वर है दुनियादारी ।
छोड़ रहें हैं आज जगत वह, कल निश्चित तेरी बारी ।।
दिवस निशा का क्रम है शाश्वत, ऋतुऐं भी आते जाते ।
समय खेलता खेल मनोहर, खेल समझ ना तुम पाते।।
आयु तुम्हारी घटती जाती, खबर तनिक ना तुम पाये ।
हरि सुमरन छोड़ जगत से, तुम नाहक मोह बढ़ाये ।।1।।
वृद्ध देह की हालत सोचो, जाड़ा से कैसे बचते ।
कभी पीठ पर सूर्य चाहिये, कभी अनल ढेरी रचते ।।
घुटनों के बीच कभी सिर रख, मुश्किल से प्राण बचाते ।
दीन दशा में देह पड़ा है, फिर भी मन आस जगाते ।।2।।
तरूण हुये थे जब से तुम तो, जग में धन-धान्य बनाये ।
पूछ-परख तब परिजन करते, भांति-भांति तुम्हें रिझाये ।।
हुआ देह अब जर्जर देखो, कुशल क्षेम भी ना वे पूछे ।
इधर-उधर अब भटकता बूढ़ा, जीवन जीने को ही जूझे ।।3।।
कोई-कोई जटा बढ़ाये, कोई सिर केश मुढ़ाये ।
गेरूवा बाना कोई साजे, कोई अँग भस्म रंगाये ।।
फिर भी दुनिया छोड़ न पाये, मन जीवन आस जगाये ।।
सत्व तत्व खुद समझ न पाये, दुनिया को वह भरमाये ।।4।।
भगवत गीता जो लोग पढ़े, जो गंगाजल पान किये ।
कृष्ण मुरारी कृष्ण मुरारी, कृष्ण भजन का गान किये ।।
उनके अंंतिम बेला पर तो, कष्ट हरण यमराज किये ।
अंतकाल में देखा जाता, जीवन में क्या काज किये ।।5।।
अंग शिथिल हो कॉंप रहा है, श्वेत केश झॉंक रहा है ।
दंत विहिन मुख कपोल पिचका, रोटी भी फॉंक रहा है ।
लाठी हाथों में डोल रहा , जीवन रहस्य खोल रहा ।
इतने पर भी हाय बुढ़ापा, मोह जगत से बोल रहा ।।6।।
बचपन को तुम खेल बिताये, मित्र किशोरापन खाये ।
देह आर्कषण के फेर परे, तरूणाई तरूण गँवाये ।।
फिर जाकर परिवार बसाये, धन दौलत प्रचुर बनाये ।
पाले नाहक चिंता अब तो, बैठ बुढ़ा हरि बिसराये ।।7।।
जन्म मरण का आर्वत फिर फिर, जन्म लिये फिर मृत्यु गहे ।
अचल नहीं यह मृत्यु हमारी, मृत्यु बाद फिर जन्म पहे ।।
फिर फिर जग में पैदा होना, फिर फिर जग से है मरना ।
टूटे अब यह दुस्तर आर्वत, देव, कृपा ऐसी करना ।।8।।
फिर-फिर आती रहती रजनी, दिन भी तो फिर-फिर आते ।
पखवाड़ा भी फिरते रहते, अयन वर्ष भी फिर जाते ।।
मानव मन की अभिलाषा है, जो मुड़कर कभी न देखे ।
देह जरा होवे तो होवे, पागल मन इसे न लेखे ।।9।।
धन बिन क्या नाते-रिश्ते, जल विहिन जलाशय जैसे ।
देह आयु जब साथ न होवे, काम-इच्छा से प्रित कैसे ।।
अरे बुढ़ापा कुछ चिंतन कर, क्या है अब पास तुम्हारे ।
हरि सुमरन विसार कर तुम, क्यों माया जगत निहारे ।।10।।
रूपसी का रूप निहारे क्यों, अहलादित होता मन है ।
वक्ष-नाभि में दृष्टि तुम्हारी, मांस-वसा का ही तन है ।।
तन आकर्षण मिथ्या माया, विचलित तुमको करते हैं ।
अरे बुढ़ापा अंतकाल में, यह माया क्यो पलते हैं ।।11।।
सारहीन यह स्वप्न लोक है, जगत मोह को तुम त्यागो ।
गहरी निद्रा पड़े हुये हो, ऑख खोल कर अब जागो ।।
मैं कौन कहॉं से आया हूँ, मातु-पिता कौन हमारो ।
आत्म तत्व पर चिंतन करते, अब अपने आप विचारो।।12।।
भगवत गीता पढ़ा करो कुछ, बिष्णु नाम जपा करो कुछ ।
ईश्वर स्वरूप का ध्यान धरो, पुण्य कर्म किया करो कुछ ।
संतो की संगति किया करो, दान-धर्म किया करो कुछ ।
दीन-हीन की मदद करो कुछ, इसके आगे बाकी तुछ ।।13।।
प्राण देह में होता जबतक, पूछ-परख है रे तेरा ।
प्राण विहिन काया को फिर, कहे न कोई रे मेरा ।
दूजे की तो बातें छोड़ों, अंतरंग जीवन साथी ।
भूत मान कर डरती रहती, यही जगत की परिपाटी ।।14।।
शारीरिक सुख के पीछे ही, भागता फिरता जवानी ।
स्त्री मोह मेंं है दीवाना, पुरूष मोह में दीवानी ।।
देह वही अब जर्जर रोगी, अंत मृत्यु को ही पाये ।
देख-भालकर भी दुनिया को, ईश्वर शरण न वह जाये ।।15।।
डगर पड़े चिथड़े की झोली, लेकर फिरता सन्यासी ।
पाप-पुण्य रहित डगर पर वह, कर्म विहिन रहे उदासी ।।
समझ लिया जो इस दुनिया में, न मैं हूँ न तू न ही जगत ।
फिर भी क्यों वह शोकग्रस्त हो, डरता फिरता एक फकत ।।16।।
चाहे गंगासागर जावे, चाहे व्रत उपवास करे ।
चाहे सारे तीरथ घूमे,चाहे कुछ बकवास करे ।।
ज्ञानविहिन मुक्ति न संभव, आत्म तत्व को तो जाने ।
कर्म भोग जीवन का गहना, ज्ञान कर्म में तानो ।।17।।
-रमेश चौहान
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आदि शङ्कराचार्यरचित चर्पटपञ्जरिका स्तोत्र का पद्यानुवाद
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